शिक्षण के सूत्र [Maxims of Teaching]
शिक्षण सूत्र का अर्थ (MEANING OF MAXIMS OF TEACHING)
शिक्षण सूत्रों के विषय में कॉमेनियम, हरबर्ट और रूसो ने अधिक कार्य किया है। इन्होंने शिक्षण सूत्रों के विषय में लिखा है- "शिक्षकों के अनुभवों एवं शिक्षाशास्त्रियों की अपनी सूझ-बूझ एव दार्शनिक परिप्रेक्ष्य पर आधारित वे मार्गदर्शक सुझाव जो शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया को एक विशेष संकेत एव दिशा प्रदान करते हैं वही शिक्षण सूत्र कहलाते हैं। इनके द्वारा शिक्षक अपने शिक्षण सम्बन्धी कार्यों तथा सामान्य विचारों एवं धारणाओं को एक निश्चित रूप देता है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये सभी शिक्षण अधिगम की परिस्थितियों में लागू होते हैं। इसलिये उन्हें सामान्यीकृत अनु- सिद्धान्त (Generalized Principle) की कोटि में रखा जाता है। इसलिये इनका सार्वभौमिक महत्त्व (Universal है। इनकी विश्वसनीयता शिक्षण औपचारिक (Formal) एवं अनौपचारिक (Informal) दोनों ही क्षेत्रों में समान रूप से देखी जा सकती है।"
शिक्षण सूत्र की परिभाषाएँ (Definitions of Maxims Teaching )
फ्रोबेल के अनुसार, "शिक्षण का उद्देश्य है अधिक-से-अधिक पाना न कि अधिक से अधिक खोना। शिक्षण सूत्र बच्चों को अधिक से अधिक ग्रहण करने योग्य बनाते हैं।"
टी. रायमण्ट के अनुसार, "शिक्षण सूत्र उन तरीकों को बताते हैं जिससे यह आशा की जाती है कि सिद्धान्त प्रयोग में सहायक होंगे।"
अतः यह कहा जा सकता है कि शिक्षण कार्य को लक्ष्य तक पहुँचाने वाले सूत्र हैं।
1: सरल से जटिल की ओर (FROM SIMPLE TO COMPLEX)
पहले आसान तथ्यों को जानना और बाद में उसकी सहायता से अनावश्यक रूप से कठिन व जटिल तथ्यों को समझने का प्रयास सदा ही सफलता प्राप्त करता है। शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में भी सरल से कठिन की ओर या आसान से जटिल की ओर अग्रसर होने का सूत्र उचित अधिगम क्रम एवं व्यवस्था प्रदान करता है। इसीलिए शिक्षक को शिक्षण कार्य करते समय पहले सरल बाद में कठिन तथ्य प्रस्तुत करने चाहिए। भाषा की शिक्षा से पहले सरल वाक्यों (Simple sentences) तथा बाद में जटिल वाक्यों (complex sentences) का ज्ञान कराना चाहिए। इतिहास तथा भूगोल में पहले स्थानीय तथ्यों के बारे में और बाद में ऐसे तथ्यों के सम्बन्ध में जानकारी देना चाहिए जो जटिल हो इसी तरह गणित मे पहले आसान प्रश्न कराए जाएँ तथा बाद में कठिन प्रश्नों की ओर बढ़ना चाहिए। इस सूत्र का प्रयोग करने के लिए शिक्षक को चाहिए कि वह बालकों के विषय की अनेक अवस्थाओं उनकी वैयक्तिक भिन्नताओ (Individual differences) तथा आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए पाठ्य-वस्तु का विभाजन सरल तथा जटिल दोनों ही रूपों में कर ले और शिक्षण का क्रम इसी रूप में निर्धारित कर दें।
2 : ज्ञात से अज्ञात की ओर (FROM KNOWN TO UNKNOWN)
सीखने की प्रक्रिया में छात्र अपने पूर्व अर्जित ज्ञान तथा अनुभवों को नए ज्ञान तथा अनुभवों से जोड़ना चाहता है। शिक्षण प्रक्रिया में शिक्षक भी विद्यार्थी के प्रति यही काम करता है। वह बालक के पूर्व ज्ञान के आधार पर नए ज्ञान को जोड़ने की कोशिश करता है। इसके लिए उसे ज्ञात से अज्ञात की ओर के शिक्षण सूत्र को अपनाना पड़ता है। उदाहरण के लिए, यदि छात्रों को अनेक फूलों तथा पत्तियों के बारे में ज्ञान कराना हो तो सबसे पहले उनके आकार तथा रंगों के बारे में जानकारी करानी होगी और इसके बाद उनसे भिन्न-भिन्न गुणों तथा प्रयोगों के बारे में बतलाना होगा। यदि शिक्षक गुणों और प्रयोगों के सम्बन्ध में जानकारी पहले ही देने लगे तो छात्र उसे समझ नहीं पाएंगे। इस प्रकार बालक के अन्दर किसी तरह की भ्रान्ति नहीं रह पाती।
3 : स्थूल से सूक्ष्म की ओर से (FROM CONCRETE TO ABSTRACT)
सबसे पहले मानसिक विकास की प्रारम्भिक अवस्थाओं में छात्र स्थूल (Concrete) वस्तुओं के बारे में ज्ञान अर्जित करना है। जैसे-जैसे उनका मानसिक विकास होता है। वैसे-वैसे उसके अनुभव का क्षेत्र बढ़ता जाता है और वह सूक्ष्म विचारों को ग्रहण करने लगता है। कई बार सूक्ष्म या अमूर्त (Abstract) तथ्यों की ओर ध्यान केन्द्रित करते समय छात्र ऊब जाता है। उसका धीरज भी समाप्त होने लगता है। अमूर्त या सूक्ष्म बातों को जानना एक कठिन कार्य होता है। अतः नए ज्ञान को स्थूल (Concrete) उदाहरण से सम्बन्धित करके यदि ज्ञान दिया जाए तो ज्ञान प्राप्त करने में सुगमता रहती है। उदाहरणार्थ, यदि पशुओं का ज्ञान देना है तो प्रारम्भ में एक दो पशुओं का ज्ञान दिया जाना चाहिए लेकिन बाद में दूसरे पशुओं के बारे में सूक्ष्म विचार विकसित हो जाते हैं।
4: पूर्ण से अंश की ओर (FROM WHOLE TO PART)
इस शिक्षण सूत्र का आधार मनोवैज्ञानिक प्रसिद्ध सिद्धान्त गैस्टाल्वाद (Gestaltism) पर आधारित है। इसमें पहले पूर्ण वस्तु को प्रस्तुत करके फिर उसके विभिन्न भागों का अध्ययन कराया जाता है। अतः पहले पूर्व वस्तु (Whole thing) का प्रत्यक्षीकरण (Perception) करना चाहिए फिर उसके अंशों (Parts) का उदाहरणार्थ, यदि हमने कक्षा के विद्यार्थियों को फूल के भाग पढ़ाने हैं तो सबसे पहले उन्हें पूरा फूल दिखाकर फूल से परिचित कराना चाहिए फिर उसके विभिन्न भागों का अध्ययन कराना चाहिए।
इस सूत्र का प्रयोग विविध विषयों के शिक्षण में भिन्न प्रकार से किया जाता है। गणित की शिक्षा में इसका प्रयोग करने के लिए अध्यापक गणित की समस्या का सारा (Whole) रूप छात्रों के सामने प्रस्तुत करता है. इसके बाद उस समस्या के अनेक पक्षों का विश्लेषण करता है। भाषा की शिक्षा में इस सूत्र का प्रयोग करने के लिए शिक्षक पूरे वाक्य को इकाई मानता है। किसी वाक्य के अन्दर शब्दों, अक्षरों तथा स्पेलिंग आदि पर ध्यान बाद में जाता है, भूगोल की शिक्षा में प्रादेशिक वर्णन देते समय पूरे प्रादेशिक क्षेत्र (Religion) का चित्रण पहले किया जाता है। इसके बाद अलग-अलग देशों के भौगोलिक तथ्यों का वर्णन किया जाता है। इसी प्रकार अन्य विषयों में इस सिद्धान्त का प्रयोग होता है।
5: अनिश्चित से निश्चित की ओर (FROM INDEFINITE TO DEFINITE)
छात्र का मस्तिष्क अपने वातावरण के सम्पर्क में अनिश्चित से निश्चित की ओर बढ़ता है। जिस प्रकार एक अन्वेषक अनिश्चित तथ्यों के आधार पर निश्चित तथ्यों की प्राप्ति करता है उसी प्रकार का मस्तिष्क कार्यशील रहता है। छात्र सीखने की प्रथम अवस्था में अनिश्चय की दिशा में रहता है तथा बाद में चलकर वह निश्चय की स्थिति पर पहुँचता है। विज्ञान के शिक्षण में इस सिद्धान्त का प्रयोग बहुत होता है। छात्र विज्ञान के नियमों, सिद्धान्तों तथा घटनाओं के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए अनिश्चित से निश्चित की ओर बढ़ता है। वह एक अन्वेषक के रूप में आगे बढ़ता है। इसी तरह गणित की शिक्षा में यह सब लागू होता है। शिक्षक को चाहिए कि वह छात्रों को अधिक देर तक अनिश्चित की स्थिति में न रखे, क्योंकि इससे छात्र के मन में तरह-तरह के शक पैदा हो सकते हैं। विषय का अच्छी तरह ज्ञान कराने के लिए यह अवस्था भी आवश्यक है क्योंकि इसके पश्चात् निश्चय की अवस्था शीघ्र ही आनी चाहिए।
एक आदर्श शिक्षक को इन सूत्रों का ज्ञान भली प्रकार से कर लेना चाहिए। क्योंकि ये सूत्र शिक्षक प्रक्रिया के समुचित विकास एवं प्रभाव की दृष्टि से अधिक महत्व रखते हैं। शिक्षक इनके माध्यम से अपने शिक्षण की क्रिया में अभीष्ट प्रभावशीलता करने में समर्थ हो सकता है। शिक्षण क्रिया में अभीष्ट प्रभावशीलता (Effectiveness) एवं सजीवता का मूलमंत्र इन सूत्रों में ढूँढ़ा जा सकता है।
6: प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष की ओर (FROM DIRECT TO INDIRECT)
जो वस्तुएँ तथा घटनाएँ छात्र के अनुभव क्षेत्र में प्रत्यक्ष ढंग से मौजूद होती हैं उनका ज्ञान छात्र को सरलतापूर्वक हो जाता है। वस्तुओं तथा घटनाओं के परोक्ष रूप में होने से उनका छात्र के ज्ञानकोष में प्रविष्ट कराना कठिन कार्य होता है। अतः अध्यापक को चाहिए कि अपने विषय से सम्बन्धित ज्ञान को पहले प्रत्यक्ष ढंग से तथा बाद में परोक्ष ढंग से प्रस्तुत करें।
7: विशिष्ट से सामान्य की ओर (FROM PARTICULAR OF GENERAL)
सामान्यीकृत तथ्य सिद्धान्त व सम्प्रत्यय आदि (Generalised facts, principles and concepts) अपने आप में कठिन होता है। आरम्भ में उन्हें ग्रहण करने में छात्रों को बहुत परेशानी होती है। प्रारम्भ में ही इन्हें प्रस्तुत नहीं करना चाहिए। इसलिए शिक्षण का आरम्भ विशेष तथ्यों, उदाहरणों व प्रयोगों के द्वारा ही किया जाना चाहिए। इस सूत्र का प्रयोग विज्ञान में उपयोगी होता है। विशेष से सामान्य की ओर का सूत्र आगमनात्मक विधि (Inductive method) पर आधारित है। छात्र पहले विशेष (Specific or particular) बातों की ओर आकर्षित होता है और फिर सामान्यीकरण (Generalisation) की ओर अग्रसर होता है। इस सूत्र का प्रयोग गणित तथा भाषा की व्याकरण की शिक्षा में भी होता है।
8: विश्लेषण से संश्लेषण की ओर (FROM ANALYSIS TO SYNTHESIS)
विश्लेषण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें किसी वस्तु के ढाँचे और रचना को अच्छी तरह समझने के के लिए उसे आसान भागों, तत्वों या अवयवों में अलग-अलग विभाजित किया जाता है। यह एक ऐसी प्रक्रिया या प्रणाली है जिसके द्वारा एक समस्या के छिपे हुए तथ्य और किसी व्यवहार या घटना के कारणों का पता लगाने एवं किसी तथ्य या वस्तु की प्रकृति की जटिलता को समझने में सहायता मिलती है। जिसे एक मशीन की बनावट या कार्यप्रणाली समझने के लिए मशीन के भागों या पुर्जों को अलग-अलग प्रस्तुत किया जाता है और हर पुर्जे का अलग-अलग ज्ञान दिया जाता है फिर पूरी मशीन की बनावट व कार्यप्रणाली समझाई जाती है। इस प्रकार विश्लेषण की प्रक्रिया द्वारा कठिन से कठिन विषय को भी आसान बनाया जा सकता है।
संश्लेषण इससे ठीक उल्टा कार्य करता है। किसी भी वस्तु या तथ्य की पूर्ण जानकारी देने के लिए उस वस्तु के विभिन्न भागों या तत्वों को ठीक रूप में प्रस्तुत किया जाता है। सश्लेषण की तुलना में विश्लेषण की प्रक्रिया खोज करने या किसी बात का पता लगाने की एक सहज, स्वाभाविक व आसान विधि है। यह शिक्षण अधिगम कार्य को करने का एक अनुसन्धानात्मक दृष्टिकोण है। इसलिए अच्छे शिक्षक को अपना शिक्षण सदा विश्लेषण से शुरू करके संश्लेषण पर समाप्त करना चाहिए।
9 : मनोवैज्ञानिक से तार्किक क्रम की ओर (PSYCHOLOGICAL TO LOGICAL)
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण शिक्षा की प्रक्रिया के शिक्षण और अधिगम के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के महत्व का प्रतिपादन करता है। इसके अनुसार शिक्षक का केन्द्र बिन्दु छात्र है। शिक्षण क्रियाओं का नियोजन एवं संगठन बच्चे की आवश्यकताओं, योग्यताओं, रुचियाँ एवं क्षमताओं के आधार पर किया जाता है। अनुदेशनात्मक उद्देश्यों का लक्ष्य भी बच्चे का हित आधार है। बाल मनोवैज्ञानिक के आधार पर ही पाठ्यक्रम शिक्षण व्यूह रचना, सहायक सामग्री और शिक्षण अधिगम वातावरण सभी का संगठन किया जाता है, परन्तु इसका यह मतलब नहीं कि एक अध्यापक अपना शिक्षण कार्य अनियोजित या बेतरतीब ढंग से करने लगे। छात्र को जो कुछ ज्ञान दिया जाए वह मनोवैज्ञानिक आधार के साथ-साथ तर्कपूर्ण क्रम में भी होना चाहिए। शिक्षण कार्य को प्रभावशाली बनाने के लिए यह आवश्यक है कि अधिगम के लिए दिए जाने वाले अनुभवों, शिक्षण की व्यूह रचनाओं मूल्यांकन क्रियाओं, प्रतिपुष्टि की प्रविधियों आदि शिक्षण क्रियाओं को ठीक क्रम में प्रस्तुत किया जाए। इसलिए एक योग्य शिक्षक अपने शिक्षण कार्य में हमेशा मनोवैज्ञानिक धरातल पर रहते हुए अपनी शिक्षण क्रियाओं की तर्कपूर्ण क्रमबद्धता बनाए रखता है।
10 : अनुभव से युक्तियुक्त की ओर (FROM EMPIRICAL TO RATIONAL)
शिक्षण अधिगम प्रक्रिया का प्रारम्भ नियमीकरण या व्याख्या के स्थान पर छात्र जो देखता है, अनुभव करता है, उसके आधार पर करना हमेशा अधिक अच्छा होता है। किसी वस्तु को देखने, परखने में उसकी अनुभूति पहले होती है, उसके बारे में तर्क देने की योग्यता बाद में आती है। युक्तियुक्त दृष्टिकोण ठोस अनुभवों का ही परिणाम है। अनुभूतिजन्य प्रमाण या मूर्त तथ्य ही किसी निष्कर्ष या तर्कसंगत ज्ञान के लिए नींव के पत्थर का काम करते हैं। ठोस सत्य या मूर्त प्रमाणों से रहित थोथे विचारों से कभी भी युक्तियुक्त चिन्तन की क्रिया सम्पन्न नहीं हो सकती। वस्तुओं व्यक्तियों, घटनाओं या तथ्यों से सम्बन्धित धारणाओं एवं प्रकृति को भलीभाँति समझने के तर्कसंगत दृष्टिकोणों को विकसित करने के लिए या किसी ठोस निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए शिक्षक को छात्रों के सम्मुख प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष अनुभवों का ही परिणाम है। अनुभूतिजन्य प्रमाण या मूर्त तथ्य ही किसी निष्कर्ष या तर्कसंगत ज्ञान के लिए नींव के पत्थर का काम करते हैं। ठोस सत्य या मूर्त प्रमाणों से रहित थोथे विचारों से कभी भी युक्तियुक्त चिन्तन की क्रिया सम्पन्न नहीं हो सकती है। वस्तुओं व्यक्तियों, घटनाओं या तथ्यों से सम्बन्धित धारणाओं एवं प्रकृति को भलीभाँति समझने के तर्कसंगत दृष्टिकोण को विकसित करने के लिए या किसी ठोस निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए शिक्षक को छात्रों के सम्मुख प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष उदाहरणों, तथ्यों या प्रमाणों को प्रस्तुत करना पड़ता है। इसलिए शिक्षक को सदा अपने विद्यार्थी को ठोस अनुभव से युक्तियुक्त ज्ञान की ओर अग्रसर करना चाहिए। भाषा, गणित तथा विज्ञान आदि विषयों के शिक्षण में यह सूत्र बहुत सहायक सिद्ध हो सकता है।
11 : प्रकृति का अनुसरण (FOLLOW NATURE)
इस शिक्षण सूत्र से तात्पर्य बालक की प्रकृति को ध्यान में रखकर शिक्षण प्रदान करने से है। शिक्षक को चाहिये कि वह जो भी बात बताये वह बालक के मानसिक एवं शारीरिक विकास के अनुरूप ही होनी चाहिये। यदि शिक्षक ऐसा नहीं करता तो इसके छात्र के विकास में बाधा उत्पन्न होगी। अतः बालक की प्रकृति के अनुसार शिक्षा प्रदान कर उसे आध्यात्मिक विकास का पूर्ण अवसर दिया जाना चाहिये। इसे नैसर्गिक विधि भी कहते हैं। इस सन्दर्भ में रेमाण्ट का कहना है कि इस सूत्र का यथार्थ अभिप्राय यह है कि हमको अपने साधनों को बालक के शारीरिक और मानसिक विकास के अनुकूल बनाना चाहिये।
लैंडन महोदय का मानना है कि हमारा शिक्षण और प्रशिक्षण बालक के विकास के नियमों और उसके मस्तिष्क के कार्य करने की विधियों के अनुरूप होना चाहिये।"
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