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शिक्षण के सिद्धान्त।शिक्षण सिद्धान्त का अर्थ।शिक्षण सिद्धान्त की आवश्यकताएँ

       शिक्षण के सिद्धान्त [Theories of Teaching]


                       शिक्षण सिद्धान्त का अर्थ

 (MEANING OF THEORIES OF TEACHING)


शिक्षण सिद्धान्त से अभिप्राय है कि किसी भी विषय क्षेत्र या प्रक्रिया के विषय में सुव्यवस्थित, सुसंगठित तथा निश्चित क्रम में विचारों को इस प्रकार से आयोजित किया जाये कि वह प्रक्रिया स्पष्ट रूप से सभी के समक्ष प्रदर्शित की जा सके।


"Theory is a formal representation of the data reduced to a minimal number of terms."          -B. F. Skinner


"Theory is supposition to account for some thing system of rules and principles, rules and reasoning etc., as distinguished practice."   —कॉलिन इंगलिश जनरल डिक्शनरी 


शिक्षण कला और विज्ञान दोनों ही है। अतः शिक्षण सिद्धान्त भी दार्शनिक तथा वैज्ञानिक प्रयत्नों को लिये हुए हुए है।


परिभाषाएँ (Definitions)


ब्रूनर (1966) के अनुसार, “शिक्षण सिद्धान्त उपचारात्मक होता है। यह ज्ञान अथवा कौशल प्राप्ति की अधिकतम प्रभावशाली विधियों से सम्बन्धित नियमों को निर्धारित करता है तथा ऐसा मानदण्ड (Criteria) प्रदान करता है, जिसकी सहायता से शिक्षण या अधिगम का मूल्यांकन किया जा सके।"


स्मिथ (1963) के अनुसार, "किसी भी शिक्षण सिद्धान्त में तीन तत्व अवश्य होने चाहिये- 1. चरो (Variables) का स्पष्टीकरण, 2. इन चरों के मध्य सम्भावित सम्बन्धों की स्थापना तथा 3. विभिन्न चरों के पारस्परिक सम्बन्धों के विषय में प्राकल्पना का स्पष्ट वर्णन "


गेज (1963) के अनुसार, "1. शिक्षक किस प्रकार व्यवहार करते हैं ? 2. वे वैसा व्यवहार क्यों करते हैं ? तथा 3. उस व्यवहार का क्या प्रभाव होता है ?"


“The theory of teaching should answer three questions—1. How teachers behave ?, 2. Why they behave as they do ? and 3. With that effects."


टैवर्स (1966) के अनुसार, "शिक्षण सिद्धान्त बहुत से 'तर्क वाक्यों' (Propositions) का एक समूह होता है, जिसमें एक ओर शिक्षा के परिणामों तथा दूसरी ओर छात्रों की विशेषताओं में पारस्परिक सम्बन्धों को स्पष्ट किया जाता है।"


कारलिंगर (1965) के अनुसार, शिक्षण सिद्धान्त, शिक्षण की परिकल्पनाएँ तथा सम्बन्धित चरो की व्याख्या करते हैं, जिससे शिक्षण प्रत्यय को क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत किया जाता है। चरों के सम्बन्ध का विशिष्टीकरण शिक्षण के उद्देश्यों की व्याख्या करने तथा उसके सम्बन्धों में पूर्व कथन के लिये किया जाता है।"

"A theory of teaching is a set of inter related construct, definitions and propositions which presents a systematic view of teaching by specifying relations among variables with the purpose of explaining and predicting teaching."    -Karlinger



शिक्षण सिद्धान्त के आधार (Basis of Theory of Teaching)


उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि शिक्षण सिद्धान्त शिक्षण एवं शिक्षक व्यवहार के बारे में बताता है।


1. शिक्षण एक स्वतन्त्र अनुशासन है अतः शिक्षण की पाठ्य-वस्तु में शिक्षण सिद्धान्तों का होना आवश्यक है।


2. शिक्षण कला और विज्ञान दोनों हे शिक्षण को कला एवं विज्ञान की संज्ञा दी जाने लगी है अतः शिक्षण के अवयव एवं चरों का विश्लेषण किया जाने लगा है जिससे शिक्षण की प्रकृति का बोध होता है।


3. शिक्षण सिद्धान्त शिक्षक व्यवहार पर आधारित किये जा सकते हैं- डी. जी. रायन ने शिक्षण सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए बतलाया है कि शिक्षक व्यवहार में सुधार और परिवर्तन लाया जा सकता है। शिक्षक व्यवहार का वस्तुनिष्ठ रूप में मापन भी किया जा सकता है। इससे शिक्षक व्यवहार की प्रकृति का बोध किया जा सकता है जो शिक्षण सिद्धान्त के एक पक्ष की व्याख्या करने में सहायक हो सकता है।


4. शिक्षण सिद्धान्त अधिगम सिद्धान्तों पर आधारित किये जा सकते हैं क्रोनबेक के अनुसार, " शिक्षण के सिद्धान्त अधिगम सिद्धान्तों पर आधारित किये जा सकते हैं (Theories of teaching can be based on theories of learning) शिक्षण क्रियाएँ, अधिगम-क्रियाओं को सुविधा प्रदान करने के लिये प्रयोग की जाती है। जहाँ शिक्षण क्रियाएँ सम्पादित होने पर ही अधिगम होगा। इस प्रकार शिक्षण और अधिगम में घनिष्ठ सह-सम्बन्ध है।"


5. शिक्षण के लिये सीखने की परिस्थितियों एक सुदृढ़ आधार प्रदान करती है राबर्ट गेने का विचार है कि शिक्षण के लिये अधिगम परिस्थितियों आधार होती है। (Conditions of learning are basis to teaching)| अधिगम परिस्थितियों को उत्पन्न करने के लिये शिक्षक द्वारा विभिन्न प्रकार की युक्तियाँ तथा प्रविधिय प्रयुक्त की जाती है। अर्थात् अधिगम की परिस्थितियों से शिक्षण की युक्तियों एवं प्रकृति का बोध होता है जो शिक्षण सिद्धान्त की व्याख्या के लिये आधार प्रदान करता है।


6. शिक्षण प्रतिमान, शिक्षण सिद्धान्त के मौलिक आधार हैं शिक्षण के प्रतिमान, शिक्षण सिद्धान्तों का आदि रूप (Initial stage) है। जिसमें शिक्षण के लक्ष्य, संरचना, सामाजिक व्यवस्था तथा मूल्यांकन की व्याख्या विशिष्ट एवं व्यावहारिक रूप में की जाती है।


1. करके सीखने का सिद्धान्त (THEORY OF ACTIVITY)


बालक जैसे-जैसे क्रियाशील होता जाता है वह कार्य करने में आनन्द का अनुभव करने लगता है। इस सिद्धान्त के अन्तर्गत करके सीखने पर जोर दिया जाता है। डाल्टन पद्धति, मॉन्टेसरी, किण्डरगार्टन बेसिक शिक्षा आदि इसी सिद्धान्त पर आधारित हैं।


गतिविधि हम सभी जानते हैं कि पौधों को विकसित होने के लिए हवा, पानी, प्रकाश खाद की आवश्यकता होती है, प्रशिक्षु इसके लिए मिट्टी खोदे बीज डालें, सीचे खाद डालें और देखें-हवा.. पानी, प्रकाश का प्रयोग करके एक बीज पौधा कैसे बनता है ? वास्तव में यह सिद्धान्त मानव स्वभाव के अनुकूल है, जन्म से ही बालक क्रियाशील रहता है, उसके प्रत्येक अंग सक्रिय रहते हैं। इस प्रकार सीखना तभी सफल होगा जब हम प्रशिक्षुओं को ज्यादा से ज्यादा करके सीखने का अवसर देंगे और मार्गदर्शन करके उनके व्यवहार में परिवर्तन करेंगे। क्रियाशीलता के सिद्धान्त का सबसे बड़ा लाभ है सीखने में एकाग्रता, जो किसी भी चाहे वह छोटा या बड़ा कार्य हो, के लिए जरूरी है।


माण्टेसरी, किण्डरगार्टन, डाल्टन ऐसी ही कुछ पद्धतियाँ है जो क्रियाशीलता पर जोर देती है। महात्मा गाँधी द्वारा चलाई गई बेसिक योजना तथा राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005 में करके सीखना को मूलभूत सिद्धान्त के रूप में मान्यता दी गई है।


2 : प्रेरणा का सिद्धान्त(THEORY OF MOTIVATION)


इस सिद्धान्त का प्रयोग बालकों में पाठ के प्रति रुचि उत्पन्न करने के लिये किया जाता है। प्रेरणा का संचार होने पर बालक शीघ्र ही पाठ को सीखने का प्रयास करते हैं। बालकों को आस-पास के वातावरण के बारे में भी जानकारी देनी चाहिये। आस-पास स्थिति औद्योगिक कारखाने, खनिज संग्रह, बाग-बगीचा, विद्युत घर, म्यूजियम आदि के बारे में जानकारी करने के लिये उन्हें वहाँ ले जाकर उनके बारे में बताना चाहिये। इनका अध्ययन करने पर उनमें अध्ययन के प्रति प्रेरणा उत्पन्न होती है।


3: रुचि का सिद्धान्त (THEORY OF INTEREST)


शिक्षण के स्पष्ट, सुपाच्य, पठनीय एवं रुचिपूर्ण बनाने के लिये पाठ में एक आदर्श लक्ष्य निर्धारित किया जाता है। इस निर्धारित लक्ष्य के द्वारा ही आगे बढ़कर पाठ में रुचि उत्पन्न की जा सकती है।


4 : निश्चित उद्देश्य का सिद्धान्त (THEORY OF DEFINITE AIMS)


कक्षा शिक्षण का एक प्रमुख सिद्धान्त है निश्चित उद्देश्यों का सिद्धान्त जिसका तात्पर्य है कि प्रत्येक पाठ का कोई न कोई उद्देश्य अवश्य ही निश्चित होता है। उद्देश्यों के अभाव में शिक्षक उचित शिक्षण नहीं करा सकता। यदि पाठ के उद्देश्यों का निर्धारण पूर्व में ही कर लिया जाता है तो शिक्षण बहुत ही स्पष्ट व्यावहारिक, सरल, सुगम एवं रुचिकर हो जाता है। साथ-ही-साथ शिक्षक-शिक्षार्थी की क्रियाओं, विषय-वस्तु विधि, प्रविधि, सहायक सामग्री मूल्यांकन की प्रविधि आदि का भी निर्धारण किया जाता है अतः उद्देश्यविहीन शिक्षण निरर्थक है।


5 : नियोजन का सिद्धान्त (THEORY OF PLANNING)


शिक्षण हो या कोई भी कार्य हो उसका पूरा होना इस बात पर निर्भर करेगा कि योजना बनाकर किया गया या नहीं। आप स्वयं चर्चा करें कि एक कमरा जिसमें किताबें, मेज, कुर्सी कपड़े, जूते यथास्थान क्रम से रखें हों और एक कमरा जिसमे सामान बेतरतीब फैला हो किस स्थान पर आपका मन कार्य में लगेगा, जाहिर है उस स्थान पर जहाँ सब कुछ क्रमबद्ध तथा नियोजित हो, इसे ही योजना का सिद्धान्त कहते हैं।


शिक्षण करते समय प्रत्येक शिक्षक को अपनी शिक्षण योजना बनानी चाहिए, उसके प्रस्तुतीकरण का क्रम ज्ञात हो ताकि सीखने वाला भ्रमित न हो कि गुरु जी ने आज क्या पढ़ाया था ? वर्तमान शिक्षण कार्य में प्रत्येक प्रशिक्षु को पाठ योजना बनाने एवं उसके अभ्यास पर जोर दिया जाता है। मान लीजिए आपको सन्धि पढ़ानी है और आपने सन्धि की परिभाषा, उदाहरण देने के बजाय शब्द- अर्थ समझाने लगे और उसी में सारा कालाश बीत जाये तो शिक्षण नियोजित नहीं कहा जायेगा।


6 : चयन का सिद्धान्त (THEORY OF SELECTION)


ज्ञान विस्तृत है। उस ज्ञान को बालक की क्षमता एवं योग्यता के अनुसार ही महत्त्वपूर्ण तथ्यों का चयन करके प्रदान करना चाहिये। शिक्षक सम्पूर्ण इकाई अथवा पाठ्यक्रम को एक ही 40-45 मिनट के कालांश में प्रदान नहीं कर सकता, वह उपयुक्त एवं महत्त्वपूर्ण बातों का चयन कर बताता है। इस हेतु उसे क्या, कब, कितना व कैसे पढ़ाना है ? वह चयन करना आवश्यक हो जाता है।


7 : वैयक्तिक भिन्नताओं का सिद्धान्त (THEORY OF INDIVIDUAL DIFFERENCES)


प्रत्येक बालक की आयु के अनुसार उसकी योग्यताएँ, रुचियाँ, अभिवृत्तियाँ भिन्न-भिन्न होती है। अतः शिक्षक को वैयक्तिक भिन्नताओं की जानकारी करके शिक्षण कार्य करना चाहिये जिससे प्रत्येक स्तर पर छात्र लाभान्वित हो सकें।


आपने देखा होगा कुछ लोग काले-कुछ गोरे होते हैं, कुछ लोग किसी तथ्य को जल्दी समझ लेते हैं कुछ लोग देर में, कुछ अपनी बात चिल्ला-चिल्लाकर सब जगह कह देते हैं और कुछ उपयुक्त समय पर भी अपने को व्यक्त नहीं करते आखिर ऐसा क्यों ? ऐसा इसलिए है, क्योंकि हर व्यक्ति एक-दूसरे से भिन्न है। उसमें कोई समानता नहीं। न रूप-रंग की. न आकृति की, न बनावट में और न ही बुद्धि में यही भिन्नता ही वैयक्तिक भिन्नता कहलाती है।


8 : लोकतन्त्रीय व्यवहार का सिद्धान्त

(THEORY OF DEMOCRATIC DEALING)


शिक्षक को चाहिये कि कक्षा में स्वतन्त्रता का वातावरण उत्पन्न करे। अर्थात् प्रत्येक बालक को कक्षा के अन्तर्गत यह स्वतन्त्रता होनी चाहिये कि अपनी शंका का समाधान कर सके। पाठ का विकास करने में छात्रों का पर्याप्त सहयोग भी लेना चाहिये।


9 : जीवन से सम्बन्ध स्थापित करने का सिद्धान्त (THEORY OF RELATED WITH LIFE)


इस सिद्धान्त का अभिप्राय है कि किसी विषय को पढ़ाते समय इस बात का ध्यान रखा जाये कि जीवन में प्रयुक्त होने वाली परिस्थितियों से सम्बन्धित हो। जीवन से सम्बन्धित विषय को बालक शीघ्र सीख लेते हैं।


10 :आवृत्ति का सिद्धान्त (THEORY OF REVISION)


पाठ्य-सामग्री के प्रति छात्रों के मस्तिष्क में स्थायी विचार बनाने के लिये शिक्षक को पाठ पढ़ाने के पश्चात् छात्रों को आवृत्ति का अवसर देना चाहिये। स्थायी विचार ज्ञान प्राप्ति का स्रोत होते हैं।


                              आवृत्ति के तरीके


        गृहकार्य     

      मासिक परीक्षा  

      छात्रों से पाठ समझाने को कहना


11 : निर्माण एवं मनोरंजन का सिद्धान्त (THEORY OF CONSTRUCTION AND RECREATION)


छात्रों में रचनात्मक एवं सृजनात्मक शक्ति का विकास करने हेतु उनसे रचनात्मक एवं मनोरंजनपूर्ण क्रियाएँ करानी चाहिये। खेल-खेल अथवा मनोरंजन में वे अपने पाठ को स्वतः ही सीख लेंगे।


1 जब तक शिक्षण कार्य में मनोरंजनात्मक क्रियाएँ समाहित नहीं होंगी, पढ्ने व पढ़ाने वालों दोनों पर सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ेगा। मान लीजिए हमें गणित में पहाड़ा सिखाना हो, तो इसे आप इस रूप में गाकर, कविता का रूप देकर शिक्षण को मनोरंजनात्मक बना सकते है कि सीखने वाले बरबस गणित में रुचि लेने लगे


दो एकम दो उठो सवेरे मुँह धोलो


दो दुना चार बहुत न खाना आम का अचार


दो तियां छ-मीठी-मीठी बात कह


दो चौके आठ-मेले में जाओ करके ठाट-बाट


ऐसे ही आगे...


12 : विभाजन का सिद्धान्त (THEORY OF DIVISION)


इसे लघु सोपानों का सिद्धान्त भी कहते हैं। शिक्षण स्वयं में व्यापक प्रक्रिया है। इसको सफल बनाने का सबसे सरल तरीका है इसे विभाजित करके पढ़ाया जाय। शिक्षक को चाहिए पाठ्यवस्तु को विभाजित करके सरल से कठिन की ओर अग्रसर हो ताकि तारतम्यता (क्रमबद्धता) बनी रहे और सम्प्रेषण 'व्यवहारिक बना रहे। मान लीजिए आपको व्याकरण का ज्ञान देना है तो आप पहले अक्षर ज्ञान देंगे, शब्द बनाना सिखायेंगे, फिर वाक्य कैसे बनाये जाते हैं यह बतायेंगे तब व्याकरणिक दृष्टि से इनका प्रयोग बताएँगे इससे क्रिया आसानी से समझ में आ जायेगी और शिक्षण बोझिल नहीं लगेगा।"


रायबर्न के अनुसार, "एक विभाजन दूसरे विभाजन तक पहुँचा देता है, जिसके फलस्वरूप कक्षा के लिये समझना सहज बन जाता है।"


शिक्षण सिद्धान्त की आवश्यकताएँ

(NEEDS OF THEORY OF TEACHING)


शिक्षण सिद्धान्त की आवश्यकताएँ निम्नलिखित है---


1. अधिगम के लिये समुचित परिस्थितियाँ उत्पन्न करने के लिये शिक्षण सिद्धान्त आवश्यक है।


2. शिक्षण सिद्धान्तों के द्वारा शिक्षण प्रक्रिया में युक्त आश्रित एवं स्वतन्त्र चरों की जानकारी शिक्षक के ज्ञान पूर्वकथन तथा नियन्त्रण में वृद्धि होती है।


3. शिक्षण सिद्धान्तों द्वारा शिक्षक के ज्ञान पूर्वकथन तथा नियन्त्रण में वृद्धि होती है।


4. ये शिक्षण के नियोजन, व्यवस्था तथा मूल्यांकन आदि के लिये वैज्ञानिक आधार प्रस्तुत करते


5. ये वर्तमान ज्ञान को संगठित करते हैं।


6. ये शिक्षकों की विभिन्न अवधारणाओं के विषय में ज्ञान प्रदान करते हैं।


7. शिक्षण सिद्धान्तों के माध्यम से शिक्षण को एक स्वतन्त्र तथा अपरिहार्य विषय बनाया जा सकता


8. इनसे हमको शिक्षण के विभिन्न स्तरों की जानकारी मिलती है तथा इस बात का भी पता लग जाता है कि उनकी व्यवस्था किन प्रतिमानों पर आधारित है तथा शिक्षण के कौन-कौन से विभिन्न स्वरूप है।


9. ये शिक्षण के विभिन्न चरों तथा अचरों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करने की प्रक्रिया को सरल बनाते हैं।


10. ये शिक्षण तथा सीखने के मध्य सह-सम्बन्ध की व्याख्या        करते हैं।


11. ये शिक्षण नीतियों के विषय में स्पष्ट निर्देश प्रदान करते          हैं।


12. ये विभिन्न अनुदेशन प्रारूपों (Instructional Designs) के बारे में ज्ञान प्रदान करते हैं।


13. ये शिक्षण के क्षेत्र में शोध एवं प्रयोग के लिये नये आयाम प्रस्तुत करते हैं।

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