अधिगम/सीखना (Learning)
अधिगम या सीखना सातत्य रूप में चलने वाली वह सार्वभौमिक प्राक्रिया है। जो जन्म से प्रारम्भ होती है और मृत्युपर्यन्त तक चलती रहती है।
सीखने की गति में वातावरण के अनुरूप परितर्वन होता रहता है। अधिगम एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसे न केवल शिक्षा मनोविज्ञान में बल्कि मनोविज्ञान की समस्त शाखाओं में सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इसलिए "वुडवर्थ" ने कहा है कि- "सीखना विकास की प्रक्रिया है"।
अधिगम के नियम (LAWS OF LEARNING)
अधिगम मनोविज्ञान का प्राण है। अधिगम को यदि मनोविज्ञान से विलग कर दिया जायेगा तो मनोविज्ञान मृतप्राय हो जायेगा। इसका प्रमुख कारण-व्यवहार एवं अस्तित्व अधिगम की जाने हर क्रिया व्यवहार द्वारा संचालित होती है। मनोविज्ञान में प्रयोगात्मक परीक्षणों ने सीखने के सिद्धान्तों की व्याख्या करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
सीखने के सिद्धान्तों को दो प्रमुख वर्गों-
व्यवहारवादी सिद्धान्त (Behaviourist Theories ) तथा
संज्ञानात्मक सिद्धान्त (Cognitive Theories) में विभक्त किया जा सकता है।
थॉर्नडाइक ने अधिगम की क्रिया में प्रभाव को अधिक महत्व दिया है। उद्दीपन का प्रभाव प्राणी पर अवश्य पड़ता है। उद्दीपन के कारण ही वह किसी भी क्रिया को रुचिपूर्वक ग्रहण करता है। प्राणी जिस कार्य निष्पादन के पश्चात् सन्तोष प्राप्त करता है, उपयोगिता का अनुभव करता है उसी कार्य को करता है तभी वह उस कार्य को करने में रुचि लेता है। अनेकों प्रयोगों के पश्चात् थॉर्नडाइक ने कुछ प्रमुख नियमों की रचना की है, जो निम्नवत् हैं -
(क) सीखने के मुख्य नियम (MAIN LAWS OF LEARNING)
(1) तत्परता का नियम (Law of Readiness) - इस नियम का तात्पर्य है कि जब प्राणी किसी कार्य को करने के लिये तैयार होता है तो वह प्रक्रिया-यदि वह कार्य करता है तो उसे आनंद देती है तथा कार्य नहीं करता है तो तनाव भी उत्पन्न करती है। जब वह सीखने को तैयार नहीं होता और उसे अधिगम हेतु बाध्य किया जाता है तो वह झुंझलाहट अनुभव करता है।थॉर्नडाइक ने इस नियम के अन्तर्गत निम्न बातों की व्याख्या की है -
(i) व्यवहार करने वाली संवाहक इकाई (Conductor unit) तत्पर होती है तो व्यवहार करने से संतोष की अनुभूति होती है।
(ii) व्यवहार करने वाली इकाई जब कार्य करने को तत्पर नहीं होती तो उस समय कार्य करना मानसिक तनाव उत्पन्न करता है जिससे कष्ट की अनुभूति होती है।
(iii) जब बात व्यवहार करने वाली इकाई को (प्राणी को) बलपूर्वक कार्य करवाने का प्रयास किए जाता है तब भी उसे असन्तोष, कष्ट एवं तनाव की अनुभूति होती है।
तत्परता का नियम तथा कक्षा शिक्षण (Law of Readiness and Classroom Teaching)
(i) नवीन ज्ञान देने से पूर्व छात्रों को मानसिक रूप से नये ज्ञान को ग्रहण करने के लिये तैयार करना चाहिए। इसमें छात्रों की व्यक्तिगत विभिन्नता को भी दृष्टि में चाहिए।
(ii) छात्र नवीन ज्ञान को ग्रहण करने हेतु जब तक मानसिक रूप से तैयार न हो जाये, उन्हें बाध्य नहीं करना चाहिए। जबरदस्ती कार्य कराने से छात्रों की शक्ति का दुरुपयोग होता है तथा उनकी भावनाओं का दमन होता है क्योंकि इस नियम को मानसिक तत्परता का नियम कहा जाता है।
(iii) कक्षा शिक्षण से पूर्व छात्रों की रुचियों, अभिक्षमताओं तथा योग्यता आदि का परीक्षण कर लेना चाहिए जिससे छात्रों के सीखने का ढंग ज्ञात हो जाये।
(iv) छात्रों में मानसिक तत्परता तथा सीखने की रुचि नवीन शिक्षण विधियों द्वारा उत्पन्न की जा सकती है।
(v) बालकों में अधिगम के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न करनी चाहिए।
(2) अभ्यास का नियम (Law of Experience) - यह नियम इस तथ्य पर आधारित है कि अभ्यास से व्यक्ति में पूर्णता आ जाती है (Practice makes a man perfect) |
हिलगार्ड तथा बोअर (Hilgard and Bower, 1975) ने इस नियम को परिभाषित करते हुये कहा है कि, "अभ्यास का नियम यह बताता है कि अभ्यास करने से उद्दीपक तथा अनुक्रिया का सम्बन्ध मजबूत होता है। उपयोग तथा अभ्यास रोक देने से सम्बन्ध कमजोर पड़ जाता है या पाठ्यवस्तु विस्मृत हो जाती है।
बार-बार के अभ्यास से माँसपेशियों तथा मस्तिष्क के स्नायु तंत्र उस क्रिया को करने के अभ्यस्त हो जाते हैं और प्राणी उस क्रिया की पुनरावृत्ति यंत्रवत करने लगता है क्योंकि किसी क्रिया को बार-बार करने से व्यक्ति की बुद्धि वृढ़ होती चली जाती है।
इसी संदर्भ में कवि रहीमदासजी ने कहा भी है -
करत करत अभ्यास ते, जड़मति होत सुजान। रसरी आवत जात ते. सिल पर परत निशान।
अर्थात् जिस प्रकार कठोर कुएँ की जगत पर बार-बार आने-जाने से कमजोर रस्सी भी उस पर निशान रूपी गड्ढा कर देती है ठीक उसी प्रकार किसी कार्य का बार-बार अभ्यास करने से हमारी बुद्धि में परिपक्वता व दृढ़ता आती है तथा हम उस कार्य में पारंगत हो जाते हैं।
अभ्यास का नियम दो भागों में विभक्त है -
(अ) उपयोग का नियम (Law of Use)- यह नियम इस बात पर बल देता है कि मनुष्य जिस कार्य को बार-बार दोहराता है, उसे शीघ्र ही सीख जाता है।
(ब) अनुपयोग का नियम (Law of Disuse) - जब हम किसी पाठ या विषय को दोहराना बंद कर देते हैं तो हम उसे धीरे-धीरे भूलते चले जाते हैं। इसे ही अनुपयोग का नियम कहा जाता है।
अभ्यास का नियम और कक्षा शिक्षण (Law of Exercise and Classroom Teaching) -
(i) इस नियम के अनुसार बालकों को सिखायी जाने वाली क्रिया को दृढ़ करने के लिये उन्हें पर्याप्त अभ्यास कराया जाये।
(ii) कक्षा-कक्ष में पढ़ाई गई विषयवस्तु का मौखिक अभ्यास कराया जाये।
(iii) कक्षा में पढ़ाई गयी विषयवस्तु का (पाठों का) शिक्षक द्वारा समय-समय पर पुनर्निरीक्षण अवश्य होते रहना चाहिए। इससे बालकों का मस्तिष्क ज्ञान के प्रति सचेष्ट बना रहता है तथा पाठ्य सामग्री के दोहराने का भी अवसर मिलता है।
(iv) कक्षा-कक्ष में छात्रों को समयानुकूल वाद-विवाद कराया जाये। इससे बालक की मौखिक अभिव्यक्ति का विकास होता है तथा तार्किक माध्यम से विषय-वस्तु को अच्छी तरह सीखने का अवसर मिलता है।
(3) प्रभाविता / प्रभाव का नियम (Law of Effect)-थॉर्नडाइक के सिद्धान्त का यह सबसे महत्त्वपूर्ण नियम है। इस नियम को सन्तोष और असन्तोष का नियम भी कहते हैं।
थॉर्नडाइक के अनुसार जिन कार्यों को करने से व्यक्ति को सन्तोष मिलता है, उसे वह बार-बार करता है। जिन कार्यों से असन्तोष मिलता है, उन्हें वह नहीं करना चाहता सन्तोषप्रद परिणाम व्यक्ति के लिये शक्तिवर्द्धक होते हैं और कष्टदायक व असंतोषप्रद परिणाम या स्थिति प्रतिक्रिया के बंचन को निर्दल बना देते हैं तथा व्यक्ति अपनी शक्ति को क्षीण होता भी महसूस करता है।
हिलगार्ड तथा बॉअर (Hilgard and Bower. 1975) ने इस नियम की व्याख्या करते हुये कहा है- प्रभाव के नियम में किसी उद्दीपक व अनुक्रिया का सम्बन्ध उसके प्रभाव के आधार पर मजबूत या कमजोर होता है। यह सम्बन्ध ऐसा होता है कि उससे जब व्यक्ति में सन्तोषजनक प्रभाव होता है तो इसमें सम्बन्ध की शक्ति बढ़ जाती है तथा जब सम्बन्ध ऐसा होता है कि उससे व्यक्ति में असंतोषजनक प्रभाव होता है तो उसकी शक्ति स्वतः कम होती जाती है।
हिलगार्ड तथा बॉअर के विचारों से स्पष्ट है कि किसी उद्दीपक (Stimulus) तथा अनुक्रिया (Response) के बीच सम्बन्ध (Connection) स्थापित होना उस अनुक्रिया के सन्तोषजनक प्रभाव (Satisfying effect) पर निर्भर करता है।
प्रभाव का नियम तथा कक्षा शिक्षण (Law of Effect and Classroom Teaching) -
(i) छात्रों को सीखने के लिये प्रोत्साहित तथा अभिप्रेरित किया जाये क्रिया की समाप्ति पर पुरस्कार तथा दण्ड की व्यवस्था की जाये। इससे अधिगम प्रभाव स्थायी हो जाते हैं।
(ii) विद्यालय में शिक्षक छात्रों की व्यक्तिगत विभिन्नताओं तथा उनके मानसिक स्तर को ध्यान में रखते हुये अधिगम क्रियायें कराये। इससे छात्रों को नवीन विषयवस्तु को सीखने में सफलता मिलती है क्योंकि अधिगम क्रियायें छात्रों के मानसिक स्तर, रुचि तथा क्षमता के होती हैं।
(iii) शिक्षक को कक्षा शिक्षण में नवीन क्रियाओं को सिखाते समय शिक्षण विधियों में भी विविधता लानी चाहिए, उसकी उपयोग में ली गई शिक्षण विधियाँ भी नवीन तथा रोचक हो।
(iv) शिक्षण कार्य करते समय अध्यापक को ऐसी विधियाँ अपनानी चाहिए जिससे छात्रों को सन्तोषप्रद अनुभव प्राप्त हो सके। छात्रों को ज्यादा भला-बुरा नहीं कहना चाहिए। ऐसा करने से छात्रों में अध्यापक के प्रति ग्रंथियाँ एवं नकारात्मक दृष्टिकोण निर्मित हो जाता है जिससे उसका सीखना भी कठिन हो जाता है।
(ख) गौण नियम (SECONDARY LAWS)
(i) बहु-अनुक्रिया का नियम (Law of Multiple Response)- इस नियम के अनुसार जब व्यक्ति के सामने कोई भी समस्या आती है तो वह उसे सुलझाने के लिये अनेक प्रकार की अनुक्रियायें करता है. और इन अनुक्रियाओं के करने का क्रम तब तक चलता रहता है जब तक कि वह सही अनुक्रिया के रूप में समस्या का समाधान नहीं कर लेता। इस प्रकार अपनी समस्या के सुलझने पर व्यक्ति संतोष का अनुभव करता है।
(ii) मानसिक स्थिति का नियम (Law of Mental Set)- किसी भी प्राणी के सीखने की योग्यता उसकी अभिवृत्ति (Attitude) तथा मनोवृत्ति (Disposition) द्वारा निर्देशित होती है। यदि व्यक्ति की किसी कार्य को सीखने में रुचि व तत्परता है तो वह उसे शीघ्र ही सीख लेता है किन्तु यदि प्राणी मानसिक र से किसी कार्य को सीखने के लिये तत्पर नहीं है तो वह उस क्रिया को या तो सीख ही नहीं पायेगा या फिर उसे कठिनाइयों से जूझना पड़ेगा।
(iii) आशिक क्रिया का नियम (Law of Partial Activity)- यह नियम इस बात पर बल देता है। कि कोई एक प्रतिक्रिया सम्पूर्ण स्थिति के प्रति नहीं होती। यह केवल संपूर्ण स्थिति के कुछ पक्षों अथवा अश के प्रति ही होती है। अतः इस नियम के अनुसार किसी कार्य को अंशत विभाजित करके किया जाता है तो वह शीघ्रता से सीखा जा सकता है।
(iv) सादृश्य अनुक्रिया का नियम (Law of Similarity or Analogy)-इस नियम का आधार पूर्व अनुभव है। प्राणी किसी नवीन परिस्थिति या समस्या के उपस्थित होने पर उससे मिलती-जुलती अन्य परिस्थिति या समस्या का स्मरण करता है जिसे वह पहले भी अनुभव कर चुका है। वह उसके प्रति वैसी ही प्रतिक्रिया करेगा जैसा कि उसने पहली परिस्थिति एवं समस्या के साथ की थी। समान तत्वों के आधार पर नवीन ज्ञान का पुराने अनुभवों से आत्मसात या समानता करने पर सीखने में सरलता तथा शीघ्रता होती है।
(v) साहचर्यात्मक स्थानान्तरण का नियम (Law of Associative Shifting)-इस नियम क अनुसार जो अनुक्रिया किसी एक उत्तेजक के प्रति होती है वही अनुक्रिया बाद में उस उत्तेजना से सम्बन्धित तथा किसी अन्य उद्दीपक के प्रति भी होने लगती है। थार्नडाइक ने अनुकूलित-अनुक्रिया (Conditioned response) को ही साहचर्य परिवर्तन के नियम के रूप में व्यक्त किया।
सीखने के नियमों का शैक्षिक महत्त्व :
(EDUCATIONAL IMPLICATION OF LAWS OF LEARNING) -
अधिगम प्रक्रिया में सीखने के नियमों का विशेष महत्व है। सीखने की तत्परता, सतत् अभ्यास, संतोषप्रद परिणाम से इच्छित फल की प्राप्ति होती है। इसलिए शिक्षक को चाहिए कि वे कार्यक्रम निश्चित करते समय इस बात का ध्यान रखें कि वह बच्चों के लिए संतोषप्रद हो और उनमें तत्परता की स्थिति पैदा की जाये। ऐसा न होने से प्रयत्न व परिश्रम व्यर्थ होगा।
विद्वानों ने सीखने की क्षमता को बढ़ावा देने के लिए सीखने के नियमों का शैक्षिक महत्व माना है जो निम्नवत है-
1. उद्देश्यों की स्पष्टता (Charity of Aims) - शिक्षा के क्षेत्र में ज्ञान का उद्देश्य निश्चित स्पष्ट एवं जीवनोपयोगी होना चाहिए। जब बच्चे उसे सीख लेगें तो स्वतः ही सीखने के क्षेत्र में अपने ध्यान को एकाग्र कर सकेंगे। वे सुख देने वाला कार्य, कष्ट देने वाले कार्य की अपेक्षा शीघ्र करते एवं सीखते हैं।
2. उपयुक्त ज्ञान एवं क्रिया का चयन (Selection of Action and Appropriate Knowledge)-बच्चे की शारीरिक एवं मानसिक क्षमता का मूल्यांकन करने के बाद ही सीखने वाले को उपयुक्त ज्ञान एवं क्रिया और विधि का चुनाव करना चाहिए। इससे उसे स्थानान्तरण एवं अभ्यास में सरलता होती है।
3. अभ्यास जागृत करना (To Awake Exercise) शिक्षक को विषय अथवा पाठ बार-बार दोहराकर अभ्यास करना चाहिए। शिक्षक द्वारा छात्रों को यह बतलाना कि बार-बार अभ्यास करने से सीखा गया ज्ञान स्थाई रहता है तथा बिना अभ्यास के वह विस्मृत हो जाता है।
4. तत्पस्ता जागृत करना (To Awake Readiness)-बच्चा/छात्र अपने कार्य को तभी सीख सकते है जब वह सीखने के लिए तैयार होगें। तत्परता बच्चों की रुचि, उत्साह, शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य आदि पर निर्भर करता है। अतः शिक्षक को चाहिए कि वह बच्चों को सिखाने से पहले तैयार कर लें, ताकि वे ज्ञान को ठीक तरीके से ग्रहण कर सकें ।
5. स्वक्रिया पर बल (Stress on Self Action)-अधिगमकर्ता को स्वयं हाथों से कार्य को करके सीखना चाहिए। इससे उसका अनुभव मजबूत एवं स्थायी होता है। इससे स्वनिर्भरता का विकास होता है।
6. अनुभव स्थानान्तरण (Experience Transfer)-सीखने के नियमों से यह स्पष्ट होता है कि मानवीय अनुभव का विशेष महत्व होता है। शिक्षक को चाहिए कि वे छात्रों को अधिक से अधिक अनुभव एकत्रित करने का अवसर दें। इसके पश्चात् वे छात्रों को अनुभवों की नवीन समस्या या कार्य के सीखने में उपयोगिता बताएँ। इस प्रकार बार-बार अभ्यास और प्रयोग से छात्र स्वतः ही अनुभवों का प्रयोग करना सीख जायेंगे।
7. प्रेरकों का प्रयोग (Use of Motives)-सीखने के नियमों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि सीखने के लिए उचित वातावरण एवं प्रेरकों का प्रयोग आवश्यक है। जब हम बच्चों को पुरस्कार, प्रोत्साहन, प्रशंसा के द्वारा सीखने के लिए तैयार करते हैं तो वे सीखने के प्रति उत्साह एवं रुचि को प्रकट करते हैं। शिक्षकों को चाहिए कि वे पठन-पाठन के बीच-बीच में बच्चों को उत्साहित करते रहें, इससे वे प्रसन्न रहते हैं तथा शिक्षक को भी परिश्रम कम करना पड़ता है।
इस प्रकार थार्नडाइक के सीखने के नियम शिक्षा के क्षेत्र में लाभप्रद रहे हैं। सीखने के प्रति छात्रों को उत्साहित बनाना शिक्षक का प्रथम कर्तव्य होना चाहिए।
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